Monday 20 June 2005

अध्याय 91 से 100



अध्याय 91. स्त्री-वश होना


901
स्त्री पर जो आसक्त हैं, उनको मिले न धर्म ।
अर्थार्थी के हित रहा, घृणित वस्तु वह कर्म ॥


902
स्त्री लोलुप की संपदा, वह है पौरुष-त्यक्त ।
लज्जास्पद बन कर बड़ी, लज्जित करती सख्त ॥


903
डरने की जो बान है, स्त्री से दब कर नीच ।
सदा रही लज्जाजनक, भले जनों के बीच ॥


904
गृहिणी से डर है जिसे, न मोक्ष की सिद्धि ।
उसकी कर्म-विदग्धता, पाती नहीं प्रसिद्धि ॥


905
पत्नी-भीरु सदा डरे, करने से वह कार्य ।
सज्जन लोगों के लिये, जो होते सत्कार्य ॥


906
जो डरते स्त्री-स्कंध से, जो है बाँस समान ।
यद्यपि रहते देव सम, उनका है नहिं मान ॥


907
स्त्री की आज्ञा पालता, जो पौरुष निर्लज्ज ॥
उससे बढ कर श्रेष्ठ है, स्त्री का स्त्रीत्व सलज्ज ॥


908
चारु मुखी वंछित वही, करते हैं जो कर्म ।
भरते कमी न मित्र की, करते नहीं सुधर्म ॥


        909
धर्म-कर्म औप्रचुर धन, तथा अन्य जो काम ।
स्त्री के आज्ञापाल को, इनका नहिं अंजाम ॥


        910
जिनका मन हो कर्मरत, जो हों धनवान ।
स्त्री-वशिता से उन्हें, कभी न है अज्ञान ॥

अध्याय 92. वार-वनिता


911
चाह नहीं है प्रेमवश, धनमूलक है चाह ।
ऐसी स्त्री का मधुर वच, ले लेता है आह ॥


912
मधुर वचन है बोलती, तोल लाभ का भाग ।
वेश्या के व्यवहार को, सोच समागम त्याग ॥


913
पण-स्त्री आलिंगन रहा, यों झूठा ही जान ।
ज्यों लिपटे तम-कोष्ठ में, मुरदे से अनजान ॥


914
रहता है परमार्थ में, जिनका मनोनियोग ।
अर्थ-अर्थिनी तुच्छ सुख, करते नहिं वे भोग ॥


915
सहज बुद्धि के साथ है, जिनका विशिष्ट ज्ञान ।
पण्य-स्त्री का तुच्छ सुख, भोगेंगे नहिं जान ॥


916
रूप-दृप्त हो तुच्छ सुख, जो देती हैं बेच ।
निज यश-पालक श्रेष्ठ जन, गले लगें नहिं, हेच ॥


917
करती है संभोग जो, लगा अन्य में चित्त ।
उससे गले लगे वही, जिसका चंचल चित्त ॥


918
जो स्त्री है मायाविनी, उसका भोग विलास ।
अविवेकी जन के लिये, रहा मोहिनी-पाश ॥


        919
वेश्या का कंधा मृदुल, भूषित है जो खूब ।
मूढ-नीच उस नरक में, रहते हैं कर डूब ॥


        920
द्वैध-मना व्यभिचारिणी, मद्य, जुए का खेल ।
लक्ष्मी से जो त्यक्त हैं, उनका इनसे मेल ॥

अध्याय 93. मद्य-निषेध


921
जो मधु पर आसक्त हैं, खोते हैं सम्मान ।
शत्रु कभी डरते नहीं, उनसे कुछ भय मान ॥


922
मद्य न पीना, यदि पिये, वही पिये सोत्साह ।
साधु जनों के मान की, जिसे नहीं परवाह ॥


923
माँ के सम्मुख भी रही, मद-मत्तता खराब ।
तो फिर सम्मुख साधु के, कितनी बुरी शराब ॥


924
जग-निंदित अति दोषयुत, जो हैं शराबखोर ।
उनसे लज्जा-सुन्दरी, मूँह लेती है मोड़ ॥


925
विस्मृति अपनी देह की, क्रय करना दे दाम ।
यों जाने बिन कर्म-फल, कर देना है काम ॥


926
सोते जन तो मृतक से, होते हैं नहिं भिन्न ।
विष पीते जन से सदा, मद्यप रहे अभिन्न ॥


927
जो लुक-छिप मधु पान कर, खोते होश-हवास ।
भेद जान पुर-जन सदा, करते हैं परिहास ॥


928
मधु पीना जाना नहीं’, तज देना यह घोष ।
पीने पर झट हो प्रकट, मन में गोपित दोष ॥


        929
मद्यप का उपदेश से, होना होश-हवास ।
दीपक ले जल-मग्न की, करना यथा तलाश ॥


        930
बिना पिये रहते समय, मद-मस्त को निहार ।
सुस्ती का, पीते स्वयं, करता क्यों न विचार ॥

अध्याय 94. जुआ


931
चाह जुए की हो नहीं, यद्यपि जय स्वाधीन ।
जय भी तो कांटा सदृश, जिसे निगलता मीन ॥


932
लाभ, जुआरी, एक कर, फिर सौ को खो जाय ।
वह भी क्या सुख प्राप्ति का, जीवन-पथ पा जाय ॥


933
पासा फेंक सदा रहा, करते धन की आस ।
उसका धन औआय सब, चलें शत्रु के पास ॥


934
करता यश का नाश है, दे कर सब दुख-जाल ।
और न कोई द्यूत सम, बनायगा कंगाल ॥


935
पासा, जुआ-घर तथा, हस्य-कुशलता मान ।
जुए को हठ से पकड़, निर्धन हुए निदान ॥


936
जुआरूप ज्येष्ठा जिन्हें, मूँह में लेती ड़ाल ।
उन्हें न मिलता पेट भर, भोगें दुख कराल ॥


937
द्यूत-भुमि में काल सब, जो करना है वास ।
करता पैतृक धन तथा, श्रेष्ठ गुणों का नाश ॥


938
पेरित मिथ्या-कर्म में, करके धन को नष्ट ।
दया-धर्म का नाश कर, जुआ दिलाता कष्ट ॥


        939
रोटी कपड़ा संपदा, विद्या औसम्मान ।
पाँचों नहिं उनके यहाँ, जिन्हें जुए की बान ॥


        940
खोते खोते धन सभी, यथा जुएँ में मोह ।
सहते सहते दुःख भी, है जीने में मोह ॥

अध्याय 95. औषध


941
वातादिक जिनको गिना, शास्त्रज्ञों ने तीन ।
बढ़ते घटते दुःख दें, करके रोगाधीन ॥


942
खादित का पचना समझ, फिर दे भोजन-दान ।
तो तन को नहिं चाहिये, कोई औषध-पान ॥


943
जीर्ण हुआ तो खाइये, जान उचित परिमाण ।
देहवान हित है वही, चिरायु का सामान ॥


944
जीर्ण कुआ यह जान फिर, खूब लगे यदि भूख ।
खाओ जो जो पथ्य हैं, रखते ध्यान अचूक ॥


945
करता पथ्याहार का, संयम से यदि भोग ।
तो होता नहिं जीव को, कोई दुःखद रोग ॥


946
भला समझ मित भोज का, जीमे तो सुख-वास ।
वैसे टिकता रोग है, अति पेटू के पास ॥


947
जाठराग्नि की शक्ति का, बिना किये सुविचार ।
यदि खाते हैं अत्याधिक, बढ़ते रोग अपार ॥


948
ठीक समझ कर रोग क्या, उसका समझ निदान ।
समझ युक्ति फिर शमन का, करना यथा विधान ॥


        949
रोगी का वय, रोग का, काल तथा विस्तार ।
सोच समझकर वैद्य को, करना है उपचार ॥


        950
रोगी वैद्य देवा तथा, तीमारदार संग ।
चार तरह के तो रहे, वैद्य शास्त्र के अंग ॥

अध्याय 96. कुलीनता


951
लज्जा, त्रिकरण-एकता, इन दोनों का जोड़ ।
सहज मिले नहिं और में, बस कुलीन को छोड़ ॥


952
सदाचार लज्जा तथा, सच्चाई ये तीन ।
इन सब से विचलित कभी, होते नहीं कुलीन ॥


953
सुप्रसन्न मुख प्रिय वचन, निंदा-वर्जन दान ।
सच्चे श्रेष्ठ कुलीन हैं, चारों का संस्थान ॥


954
कोटि कोटि धन ही सही, पायें पुरुष कुलीन ।
तो भी वे करते नहीं, रहे कर्म जो हीन ॥


955
हाथ खींचना ही पड़े, यद्यपि हो कर दीन ।
छोडें वे न उदारता, जिनका कुल प्राचीन ॥


956
पालन करते जी रहें, जो निर्मल कुल धर्म ।
यों जो हैं वे ना करें, छल से अनुचित कर्म ॥


957
जो जन बडे कुलीन हैं, उन पर लगा कलंक ।
नभ में चन्द्र-कलंक सम, प्रकटित हो अत्तंग ॥


958
रखते सुगुण कुलीन के, जो निकले निःस्नेह ।
उसके कुल के विषय में, होगा ही संदेह ॥


        959
अंकुर करता है प्रकट, भू के गुण की बात ।
कुल का गुण, कुल-जात की, वाणी करती ज्ञात ॥


        960
जो चाहे अपना भला, पकडे लज्जा-रीत ।
जो चाहे कुल-कानि को, सब से रहे विनीत ॥

अध्याय 97. मान


961
जीवित रहने के लिये, यद्यपि है अनिवार्य ।
फिर भी जो कुल-हानिकर, तज देना वे कार्य ॥


962
जो हैं पाना चाहते, कीर्ति सहित सम्मान ।
यश-हित भी करते नहीं, जो कुल-हित अपमान ॥


963
सविनय रहना चाहिये, रहते अति संपन्न ।
तन कर रहना चाहिये, रहते बड़ा विपन्न ॥


964
गिरते हैं जब छोड़कर, निज सम्मानित स्थान ।
नर बनते हैं यों गिरे, सिर से बाल समान ॥


965
अल्प घुंघची मात्र भी, करते जो दुष्काम ।
गिरि सम ऊँचे क्यों न हों, होते हैं बदनाम ॥


966
न तो कीर्ति की प्राप्ति हो, न हो स्वर्ग भी प्राप्त ।
निंदक का अनुचर बना, तो औक्या हो प्राप्त ॥


967
निंदक का अनुचर बने, जीवन से भी हेय ।
ज्यों का त्यों रह मर गया’, कहलाना है श्रेय ॥


968
नाश काल में मान के, जो कुलीनता-सत्व ।
तन-रक्षित-जीवन भला, क्या देगा अमरत्व ॥


        969
बाल कटा तो त्याग दे, चमरी-मृग निज प्राण ।
उसके सम नर प्राण दें, रक्षा-हित निज मान ॥


        970
जो मानी जीते नहीं, होने पर अपमान ।
उनके यश को पूज कर, लोक करे गुण-गान ॥

अध्याय 98. महानता


971
मानव को विख्याति दे, रहना सहित उमंग ।
जीयेंगे उसके बिना’, है यों कथन कलक ॥


972
सभी मनुज हैं जन्म से, होते एक समान ।
गुण-विशेष फिर सम नहीं, कर्म-भेद से जान ॥


973
छोटे नहिं होते बड़े, यद्यपि स्थिति है उच्च ।
निचली स्थिति में भी बड़े, होते हैं नहिं तुच्छ ॥


974
एक निष्ठ रहती हुई, नारी सती समान ।
आत्म-संयमी जो रहा, उसका हो बहुमान ॥


975
जो जन महानुभव हैं, उनको है यह साध्य ।
कर चुकना है रीति से, जो हैं कार्य असाध्य ॥


976
छोटों के मन में नहीं, होता यों सुविचार ।
पावें गुण नर श्रेष्ठ का, कर उनका सत्कार ॥


977
लगती है संपन्नता, जब ओछों के हाथ ।
तब भी अत्याचार ही, करे गर्व के साथ ॥


978
है तो महानुभावता, विनयशील सब पर्व ।
अहम्मन्य हो तुच्छता, करती है अति गर्व ॥


        979
अहम्मन्यता-हीनता, है महानता बान ।
अहम्मन्यता-सींव ही, ओछापन है जान ॥


        980
दोषों को देना छिपा, है महानता-भाव ।
दोषों की ही घोषणा, है तुच्छत- स्वभाव ॥

अध्याय 99. सर्वगुण-पूर्णता


981
जो सब गुण हैं पालते, समझ योग्य कर्तव्य ।
उनकों अच्छे कार्य सब, सहज बने कर्तव्य ॥


982
गुण-श्रेष्ठता-लाभ ही, महापुरुष को श्रेय ।
अन्य लाभ की प्राप्ति से, श्रेय न कुछ भी ज्ञेय ॥


983
लोकोपकारिता, दया, प्रेम हया औसाँच ।
सुगुणालय के थामते, खंभे हैं ये पाँच ॥


984
वध-निषेध-व्रत-लाभ ही, तप को रहा प्रधान ।
पर-निंदा वर्जन रही, गुणपूर्णता महान ॥


985
विनयशीलता जो रही, बलवानों का सार ।
है रिपु-रिपुता नाश-हित, सज्जन का हथियार ॥


986
कौन कसौटी जो परख, जाने गुण-आगार ।
है वह गुण जो मान ले, नीचों से भी हार ॥


987
अपकारी को भी अगर, किया नहीं उपकार ।
होता क्या उपयोग है, हो कर गुण-आगार ॥


988
निर्धनता नर के लिये, होता नहिं अपमान ।
यदि बल है जिसको कहें, सर्व गुणों की खान ॥


        989
गुण-सागर के कूल सम, जो मर्यादा-पाल ।
मर्यादा छोड़े नहीं, यद्यपि युगान्त-काल ॥


        990
घटता है गुण-पूर्ण का, यदि गुण का आगार ।
तो विस्तृत संसार भी, ढो सकता नहिं भार ॥

अध्याय 100. शिष्टाचार


991
मिलनसार रहते अगर, सब लोगों को मान ।
पाना शिष्टाचार है, कहते हैं आसान ॥


992
उत्तम कुल में जन्म औ’, प्रेम पूर्ण व्यवहार ।
दोनों शिष्टाचार के, हैं ही श्रेष्ठ प्रकार ॥


993
न हो देह के मेल से, श्रेष्ठ जनों का मेल ।
आत्माओं के योग्य तो, हैं संस्कृति का मेल ॥


994
नीति धर्म को चाहते, जो करते उपकार ।
उनके शिष्ट स्वभाव को, सराहता संसार ॥


995
हँसी खेल में भी नहीं, निंदा करना इष्ट ।
पर-स्वभाव ज्ञाता रहें, रिपुता में भी शिष्ट ॥


996
शिष्टों के आधार पर, टिकता है संसार ।
उनके बिन तो वह मिले, मिट्टी में निर्धार ॥


997
यद्यपि हैं रेती सदृश, तीक्षण बुद्धि-निधान ।
मानव-संस्कृति के बिना, नर हैं वृक्ष समान ॥


998
मित्र न रह जो शत्रु हैं, उनसे भी व्यवहार ।
सभ्य पुरुष का नहिं किया, तो वह अधम विचार ॥


        999
जो जन कर सकते नहीं, प्रसन्न मन व्यवहार ।
दिन में भी तम में पड़ा, है उनका संसार ॥


      1000
जो है प्राप्त असभ्य को, धन-सम्पत्ति अमेय ।
कलश-दोष से फट गया, शुद्ध दूध सम ज्ञेय ॥

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