Tuesday 21 June 2005

अध्याय 31 से 38



अध्याय 31. अक्रोध


301
जहाँ चले वश क्रोध का, कर उसका अवरोध ।
अवश क्रोध का क्या किया, क्या न किया उपरोध ॥


302
वश न चले जब क्रोध का, तब है क्रोध खराब ।
अगर चले बश फिर वही, सबसे रहा खराब ॥


303
किसी व्यक्ति पर भी कभी, क्रोध न कर, जा भूल ।
क्योंकि अनर्थों का वही, क्रोध बनेगा मूल ॥


304
हास और उल्लास को, हनन करेगा क्रोध ।
उससे बढ़ कर कौन है, रिपु जो करे विरोध ॥


305
रक्षा हित अपनी स्वयं, बचो क्रोध से साफ़ ।
यदि न बचो तो क्रोध ही, तुम्हें करेगा साफ़ ॥


306
आश्रित जन का नाश जो, करे क्रोध की आग ।
इष्ट-बन्धु-जन-नाव को, जलायगी वह आग ॥


307
मान्य वस्तु सम क्रोध को, जो माने वह जाय ।
हाथ मार ज्यों भूमि पर, चोट से न बच जाय ॥


308
अग्निज्वाला जलन ज्यों, किया अनिष्ट यथेष्ट ।
फिर भी यदि संभव हुआ, क्रोध-दमन है श्रेष्ठ ॥


309
जो मन में नहिं लायगा, कभी क्रोध का ख्याल ।
मनचाही सब वस्तुएँ, उसे प्राप्य तत्काल ॥


       310
जो होते अति क्रोधवश, हैं वे मृतक समान ।
त्यागी हैं जो क्रोध के, त्यक्त-मृत्यु सम मान ॥

अध्याय 32. अहिंसा


311
तप-प्राप्र धन भी मिले, फिर भी साधु-सुजान ।
हानि न करना अन्य की, मानें लक्ष्य महान ॥


312
बुरा किया यदि क्रोध से, फिर भी सधु-सुजान ।
ना करना प्रतिकार ही, मानें लक्ष्य महान ॥


313
बुरा किया कारण बिना’, करके यही विचार ।
किया अगर प्रतिकार तो, होगा दुःख अपार ॥


314
बुरा किया तो कर भला, बुरा भला फिर भूल ।
पानी पानी हो रहा, बस उसको यह शूल ॥


315
माने नहिं पर दुःख को, यदि निज दुःख समान ।
तो होता क्या लाभ है, रखते तत्वज्ञान ॥


316
कोई समझे जब स्वयं, बुरा फलाना कर्म ।
अन्यों पर उस कर्म को, नहीं करे, यह धर्म ॥


317
किसी व्यक्ति को उल्प भी, जो भी समय अनिष्ट ।
मनपूर्वक करना नहीं, सबसे यही वरिष्ठ ॥


318
जिससे अपना अहित हो, उसका है दृढ़ ज्ञान ।
फिर अन्यों का अहित क्यों, करता है नादान ॥


319
दिया सबेरे अन्य को, यदि तुमने संताप ।
वही ताप फिर साँझ को, तुमपर आवे आप ॥


       320
जो दुःख देगा अन्य को, स्वयं करे दुःख-भोग ।
दुःख-वर्जन की चाह से, दुःख न दें बुध  लोग ॥

अध्याय 33. वध-निशेध


321
धर्म-कृत्य का अर्थ है, प्राणी-वध का त्याग ।
प्राणी-हनन दिलायगा, सर्व-पाप-फल-भाग ॥


322
खाना बाँट क्षुधार्त्त को, पालन कर सब जीव ।
शास्त्रकार मत में यही, उत्तम नीति अतीव ॥


323
प्राणी-हनन निषेध का, अद्वितीय है स्थान ।
तदनन्तर ही श्रेष्ठ है, मिथ्या-वर्जन मान ॥


324
लक्षण क्या उस पंथ का, जिसको कहें सुपंथ ।
जीव-हनन वर्जन करे, जो पथ वही सुपंथ ॥


325
जीवन से भयभीत हो, जो होते हैं संत ।
वध-भय से वध त्याग दे, उनमें वही महंत ॥


326
हाथ उठावेगा नहीं जीवन-भक्षक काल ।
उस जीवन पर, जो रहें, वध-निषेध-व्रत-पाल ॥


327
प्राण-हानि अपनी हुई, तो भी हो निज धर्म ।
अन्यों के प्रिय प्राण का, करें न नाशक कर्म ॥


328
वध-मूलक धन प्राप्ति से, यद्यपि हो अति प्रेय ।
संत महात्मा को वही, धन निकृष्ट है ज्ञेय ॥


329
प्राणी-हत्या की जिन्हें, निकृष्टता का भान ।
उनके मत में वधिक जन, हैं चण्डाल मलान ॥


       330
जीवन नीच दरिद्र हो, जिसका रुग्ण शरीर ।
कहते बुथ, उसने किया, प्राण-वियुक्त शरीर ॥

अध्याय 34. अनित्यता


331
जो है अनित्य  वस्तुएँ, नित्य वस्तु सम भाव ।
अल्पबुद्धिवश जो रहा, है यह नीच स्वभाव ॥


332
रंग-भूमि में ज्यो जमे, दर्शक गण की भीड़ ।
जुड़े प्रचुर संपत्ति त्यों, छँटे यथा वह भीड़ ॥


333
धन की प्रकृति अनित्य है, यदि पावे ऐश्वर्य ।
तो करना तत्काल ही, नित्य धर्म सब वर्य ॥


334
काल-मान सम भासता, दिन है आरी-दांत ।
सोचो तो वह आयु को, चीर रहा दुर्दान्त ॥


335
जीभ बंद हो, हिचकियाँ लगने से ही पूर्व ।
चटपट करना चाहिये, जो है कर्म अपूर्व ॥


336
कल जो था, बस, आज तो, प्राप्त किया पंचत्व ।
पाया है संसार ने, ऐसा बड़ा महत्व ॥


337
अगले क्षण क्या जी रहें, इसका है नहिं बोध ।
चिंतन कोटिन, अनगिनत, करते रहें अबोध ॥


338
अंडा फूट हुआ अलग, तो पंछी उड़ जाय ।
वैसा देही-देह का, नाता जाना जाय ॥


339
निद्रा सम ही जानिये, होता है देहान्त ।
जगना सम है जनन फिर, निद्रा के उपरान्त ॥


       340
आत्मा का क्या है नहीं, कोई स्थायी धाम ।
सो तो रहती देह में, भाड़े का सा धाम ॥

अध्याय 35. संन्यास


341
ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें आसक्ति ।
त्यों त्यों तद्गत दुःख से, मुक्त हो रहा व्यक्ति ॥


342
संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई आनन्द ।
संन्यासी बन समय पर, यदि होना आनन्द ॥


343
दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत राग ।
उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम त्याग ॥


344
सर्वसंग का त्याग ही, तप का है गुण-मूल ।
बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल ॥


345
भव- बन्धन को काटते, बोझा ही है देह ।
फिर औरों से तो कहो, क्यों संबन्ध- सनेह ॥


346
अहंकार ममकार को, जिसने किया समाप्त ।
देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा प्राप्त ॥


347
अनासक्त जो न हुए, पर हैं अति आसक्त ।
उनको लिपटें दुःख सब, और करें नहिं त्यक्त ॥


348
पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे धन्य ।
भव- बाधा के जाल में, फँसें मोह- वश अन्य ॥


349
मिटते ही आसक्ति के, होगी भव से मुक्ति ।
बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता की भुक्ति ॥


       350
वीतराग के राग में, हो तेरा अनुराग ।
सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे पाय विराग ॥

अध्याय 36. तत्वज्ञान


351
मिथ्या में जब सत्य का, होता भ्रम से भान ।
देता है भव-दुःख को, भ्रममूलक वह ज्ञान ।


352
मोह-मुक्त हो पा गये, निर्मल तत्वज्ञान ।
भव-तम को वह दूर कर, दे आनन्द महान ॥


353
जिसने संशय-मुक्त हो, पाया ज्ञान-प्रदीप ।
उसको पृथ्वी से अधिक, रहता मोक्ष समीप ॥


354
वशीभूत मन हो गया, हुई धारणा सिद्ध ।
फिर भी तत्वज्ञान बिन, फल होगा नहिं सिद्ध ॥


355
किसी तरह भी क्यों नहीं, भासे अमुक पदार्थ ।
तथ्य-बोध उस वस्तु का, जानो ज्ञान पथार्थ ॥


356
जिसने पाया श्रवण से, यहीं तत्व का ज्ञान ।
मोक्ष-मार्ग में अग्रसर, होता वह धीमान ॥


357
उपदेशों को मनन कर, सत्य-बोध हो जाय ।
पुनर्जन्म की तो उन्हें, चिन्ता नहिं रह जाय ॥


358
जन्म-मूल अज्ञान है, उसके निवारणार्थ ।
मोक्ष-मूल परमार्थ का, दर्शन ज्ञान पथार्थ ॥


359
जगदाश्रय को समझ यदि, बनो स्वयं निर्लिप्त ।
नाशक भावी दुःख सब, करें कभी नहिं लिप्त ॥


       360
काम क्रोध औमोह का न हो नाम का योग ।
तीनों के मिटते, मिटे, कर्म-फलों का रोग ॥

अध्याय 37. तृष्णा का उ़न्मूलन


361
सर्व जीव को सर्वदा, तृष्णा-बीज अचूक ।
पैदा करता है वही, जन्म-मरण की हूक ॥


362
जन्म-नाश की चाह हो, यदि होनी है चाह ।
चाह-नाश की चाह से, पूरी हो वह चाह ॥


363
तृष्णा-त्याग सदृश नहीं, यहाँ श्रेष्ठ धन-धाम ।
स्वर्ग-धाम में भी नहीं, उसके सम धन-धाम ॥


364
चाह गई तो है वही, पवित्रता या मुक्ति ।
करो सत्य की चाह तो, होगी चाह-विमुक्ति ॥


365
कहलाते वे मुक्त हैं, जो हैं तृष्णा-मुक्त ।
सब प्रकार से, अन्य सब, उतने नहीं विमुक्त ॥


366
तृष्णा से डरते बचे, है यह धर्म महान ।
न तो फँसाये जाल में, पा कर असावधान ॥


367
तृष्णा को यदि कर दिया, पूरा नष्ट समूल ।
धर्म-कर्म सब आ मिले, इच्छा के अनुकूल ॥


368
तृष्णा-त्यागी को कभी, होगा ही नहिं दुःख ।
तृष्णा के वश यदि पड़ेहोगा दुःख पर दुःख ॥


369
तृष्णा का यदि नाश हो, जो है दुःख कराल ।
इस जीवन में भी मनुज, पावे सुख चिरकाल ॥


       370
तृष्णा को त्यागो अगर, जिसकी कभी न तुष्टि ।
वही दशा दे मुक्ति जो, रही सदा सन्तुष्टि ॥

अध्याय 38. प्रारब्ध


371
अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव ।
अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य स्वभाव ॥


372
अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि को मन्द ।
अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल अमन्द ॥


373
गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी अपना भाग्य ।
मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य अभाग्य ॥


374
जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार से भिन्न ।
श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति है भिन्न ॥


375
धन अर्जन करत समय, विधिवश यह हो जाय ।
बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला बन जाय ॥


376
कठिन यत्न भी ना रखे, जो न रहा निज भाग ।
निकाले नहीं निकलता, जो है अपने भाग ॥


377
भाग्य-विद्यायक के किये, बिना भाग्य का योग ।
कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ है सुख-भोग ॥


378
दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि न दिलावें दैव ।
सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त तदैव ॥


379
रमता है सुख-भोग में, फल दे जब सत्कर्म ।
गड़बड़ करना किसलिये, फल दे जब दुष्कर्म ॥


       380
बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है शक्ति महान ।
जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे आन ॥

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