Monday 20 June 2005

अध्याय 101 से 108




अध्याय 101. निष्फल धन


1001
भर कर घर भर प्रचुर धन, जो करता नहिं भोग ।
धन के नाते मृतक है, जब है नहिं उपयोग ॥


1002
सब होता है अर्थ से’, रख कर ऐसा ज्ञान ।
कंजूसी के मोह से, प्रेत-जन्म हो मलान ॥


1003
लोलुप संग्रह मात्र का, यश का नहीं विचार ।
ऐसे लोभी का जनम, है पृथ्वी को भार ॥


1004
किसी एक से भी नहीं, किया गया जो प्यार ।
निज अवशेष स्वरूप वह, किसको करे विचार ॥


1005
जो करते नहिं दान ही, करते भी नहिं भोग ।
कोटि कोटि धन क्यों न हो, निर्धन हैं वे लोग ॥


1006
योग्य व्यक्ति को कुछ न दे, स्वयं न करता भोग ।
विपुल संपदा के लिये, इस गुण का नर रोग ॥


1007
कुछ देता नहिं अधन को, ऐसों का धन जाय ।
क्वाँरी रह अति गुणवती, ज्यों बूढ़ी हो जाय ॥


1008
अप्रिय जन के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति ।
ग्राम-मध्य विष-वृक्ष ज्यों, पावे फल-संपत्ति ॥


      1009
प्रेम-भाव तज कर तथा, भाव धर्म से जन्य ।
आत्म-द्रोह कर जो जमा, धन हथियाते अन्य ॥


      1010
उनकी क्षणिक दरिद्रता, जो नामी धनवान ।
जल से खाली जलद का, है स्वभाव समान ॥

अध्याय 102. लज्जाशीलता


1011
लज्जित होना कर्म से, लज्जा रही बतौर ।
सुमुखी कुलांगना-सुलभ, लज्जा है कुछ और ॥


1012
अन्न वस्त्र इत्यादि हैं, सब के लिये समान ।
सज्जन की है श्रेष्ठता, होना लज्जावान ॥


1013
सभी प्राणियों के लिये, आश्रय तो है देह ।
रखती है गुण-पूर्णता, लज्जा का शुभ गेह ॥


1014
भूषण महानुभाव का, क्या नहिं लज्जा-भाव ।
उसके बिन गंभीर गति, क्या नहिं रोग-तनाव ॥


1015
लज्जित है, जो देख निज, तथा पराया दोष ।
उनको कहता है जगत, ‘यह लज्जा का कोष


1016
लज्जा को घेरा किये, बिना सुरक्षण-योग ।
चाहेंगे नहिं श्रेष्ठ जन, विस्तृत जग का भोग ॥


1017
लज्जा-पालक त्याग दें, लज्जा के हित प्राण ।
लज्जा को छोड़ें नहीं, रक्षित रखने जान ॥


1018
अन्यों को लज्जित करे, करते ऐसे कर्म ।
उससे खुद लज्जित नहीं, तो लज्जित हो धर्म ॥


      1019
यदि चूके सिद्धान्त से, तो होगा कुल नष्ट ।
स्थाई हो निर्लज्जता, तो हों सब गुण नष्ट ॥


      1020
कठपुथली में सूत्र से, है जीवन-आभास ।
त्यों है लज्जाहीन में, चैतन्य का निवास ॥

अध्याय 103. वंशोत्कर्ष-विधान


1021
हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य ।
इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है जो मन्तव्य ॥


1022
सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों ही अंश ।
क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत होता वंश ॥


1023
कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात ।
तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे हाथ ॥


1024
कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न में चूर ।
अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता पूर ॥


1025
कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका है आचार ।
बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा संसार ॥


1026
स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन का मान ।
अपनाना है मनुज को, उत्तम पौरुष जान ॥


1027
महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों हैं जिम्मेदार ।
त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब का भार ॥


1028
कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर खास ।
आलसवश मानी बने, तो होता है नाश ॥


      1029
जो होने देता नहीं, निज कुटुंब में दोष ।
उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों का कोष ॥


      1030
योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा टेक ।
जड़ में विपदा काटते, गिर जाये कुल नेक ॥

अध्याय 104. कृषि


1031
कृषि-अधीन ही जग रहा, रह अन्यों में घुर्ण ।
सो कृषि सबसे श्रेष्ठ है, यद्यपि है श्रमपूर्ण ॥


1032
जो कृषि की क्षमता बिना, करते धंधे अन्य ।
कृषक सभी को वहन कर, जगत-धुरी सम गण्य ॥


1033
जो जीवित हैं हल चला, उनका जीवन धन्य ।
झुक कर खा पी कर चलें, उनके पीचे अन्य ॥


1034
निज नृप छत्रच्छाँह में, कई छत्रपति शान ।
छाया में पल धान की, लाते सौम्य किसान ॥


1035
निज कर से हल जोत कर, खाना जिन्हें स्वभाव ।
माँगें नहिं, जो माँगता, देंगे बिना दुराव ॥


1036
हाथ खिँचा यदि कृषक का, उनकी भी नहिं टेक ।
जो ऐसे कहते रहे हम हैं निस्पृह एक


1037
एक सेर की सूख यदि, पाव सेर हो धूल ।
मुट्ठी भर भी खाद बिन, होगी फ़सल अतूल ॥


1038
खेत जोतने से अधिक, खाद डालना श्रेष्ठ ।
बाद निराकर सींचना, फिर भी रक्षण श्रेष्ठ ॥


      1039
चल कर यदि देखे नहीं, मालिक दे कर ध्यान ।
गृहिणी जैसी रूठ कर, भूमि करेगी मान ॥


      1040
हम दरिद्र हैंयों करे, सुस्ती में आलाप ।
भूमि रूप देवी उसे, देख हँसेगी आप ॥

अध्याय 105. दरिद्रता


1041
यदि पूछो दारिद्र्य सम, दुःखद कौन महान ।
तो दुःखद दारिद्र्य सम, दारिद्रता ही जान ॥


1042
निर्धनता की पापिनी, यदि रहती है साथ ।
लोक तथा परलोक से, धोना होगा हाथ ॥


1043
निर्धनता के नाम से, जो है आशा-पाश ।
कुलीनता, यश का करेएक साथ ही नाश ॥


1044
निर्धनता पैदा करे, कुलीन में भी ढील ।
जिसके वश वह कह उठे, हीन वचन अश्लील ॥


1045
निर्धनता के रूप में, जो है दुख का हाल ।
उसमें होती है उपज, कई तरह की साल ॥


1046
यद्यपि अनुसंधान कर, कहे तत्व का अर्थ ।
फिर भी प्रवचन दिन का, हो जाता है व्यर्थ ॥


1047
जिस दरिद्र का धर्म से, कुछ भी न अभिप्राय ।
जननी से भी अन्य सम, वह तो देखा जाय ॥


1048
कंगाली जो कर चुकी, कल मेरा संहार ।
अयोगी क्या आज भी, करने उसी प्रकार ॥


      1049
अन्तराल में आग के, सोना भी है साध्य ।
आँख झपकना भी ज़रा, दारिद में नहिं साध्य ॥


      1050
भोग्य-हीन रह, दिन का, लेना नहिं सन्यास ।
माँड-नमक का यम बने, करने हित है नाश ॥

अध्याय 106. याचना


1051
याचन करने योग्य हों, तो माँगना ज़रूर ।
उनका गोपन-दोष हो, तेरा कुछ न कसूर ॥


1052
यचित चीज़ें यदि मिलें, बिना दिये दुख-द्वन्द ।
याचन करना मनुज को, देता है आनन्द ॥


1053
खुला हृदय रखते हुए, जो मानेंगे मान ।
उनके सम्मुख जा खड़े, याचन में भी शान ॥


1054
जिन्हें स्वप्न में भी नहीं’, कहने की नहिं बान ।
उनसे याचन भी रहा, देना ही सम जान ॥


1055
सम्मुख होने मात्र से, बिना किये इनकार ।
दाता हैं जग में, तभी, याचन है स्वीकार ॥


1056
उन्हें देख जिनको नहीं, ‘ना’, कह सहना कष्ट ।
दुःख सभी दारिद्र्य के, एक साथ हों नष्ट ॥


1057
बिना किये अवहेलना, देते जन को देख ।
मन ही मन आनन्द से, रहा हर्ष-अतिरेक ॥


1058
शीतल थलयुत विपुल जग, यदि हो याचक-हीन ।
कठपुथली सम वह रहे, चलती सूत्राधीन ॥


      1059
जब कि प्रतिग्रह चाहते, मिलें न याचक लोग ।
दाताओं को क्या मिले, यश पाने का योग ॥


      1060
याचक को तो चाहिये, ग्रहण करे अक्रोध ।
निज दरिद्रता-दुःख ही, करे उसे यह बोध ॥

अध्याय 107. याचना-भय


1061
जो न छिपा कर, प्रेम से, करते दान यथेष्ट ।
उनसे भी नहिं माँगना, कोटि गुना है श्रेष्ठ ॥


1062
यदि विधि की करतार ने, भीख माँग नर खाय ।
मारा मारा फिर वही, नष्ट-भ्रष्ट हो जाय ॥


1063
निर्धनता के दुःख को, करें माँग कर दूर
इस विचार से क्रूरतर, और न है कुछ क्रूर ॥


1064
दारिदवश भी याचना, जिसे नहीं स्वीकार ।
भरने उसके पूर्ण-गुण, काफी नहिं संसार ॥


1065
पका माँड ही क्यों न हो, निर्मल नीर समान ।
खाने से श्रम से कमा, बढ़ कर मधुर न जान ॥


1066
यद्यपि माँगे गाय हित, पानी का ही दान ।
याचन से बदतर नहीं, जिह्वा को अपमान ॥


1067
याचक सबसे याचना, यही कि जो भर स्वाँग ।
याचन करने पर न दें, उनसे कभी न माँग ॥


1068
याचन रूपी नाव यदि, जो रक्षा बिन नग्न ।
गोपन की चट्टान से, टकराये तो भग्न ॥


      1069
दिल गलता है, ख्याल कर, याचन का बदहाल ।
गले बिना ही नष्ट हो, गोपन का कर ख्याल ॥


      1070
नहींशब्द सुन जायगी, याचक जन की जान ।
गोपन करते मनुज के, कहाँ छिपेंगे प्राण ॥

अध्याय 108. नीचता


1071
हैं मनुष्य के सदृश ही, नीच लोग भी दृश्य ।
हमने तो देखा नहीं, ऐसा जो सादृश्य ॥


1072
चिन्ता धर्माधर्म की, नहीं हृदय के बीच ।
सो बढ़ कर धर्मज्ञ से, भाग्यवान हैं नीच ॥


1073
नीच लोग हैं देव सम, क्योंकि निरंकुश जीव ।
वे भी करते आचरण, मनमानी बिन सींव ॥


1074
मनमौजी ऐसा मिले, जो अपने से खर्व ।
तो उससे बढ़ खुद समझ, नीच करेगा गर्व ॥


1075
नीचों के आचार का, भय ही है आधार ।
भय बिन भी कुछ तो रहे, यदि हो लाभ-विचार ॥


1076
नीच मनुज ऐसा रहा, जैसा पिटता ढोल ।
स्वयं सुने जो भेद हैं, ढो अन्यों को खोल ॥


1077
गाल-तोड़ घूँसा बिना, जो फैलाये हाथ ।
झाडेंगे नहिं अधम जन, निज झूठा भी हाथ ॥


1078
सज्जन प्रार्थन मात्र से, देते हैं फल-दान ।
नीच निचोड़ों ईख सम, तो देते रस-पान ॥


      1079
खाते पीते पहनते, देख पराया तोष ।
छिद्रान्वेषण-चतुर जो, नीच निकाले दोष ॥


      1080
नीच लोग किस योग्य हों, आयेंगे क्या काम ।
संकट हो तो झट स्वयं, बिक कर बनें गुलाम ॥

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